परिचय
महात्मा गांधी, जिन्हें प्यार से बापू कहा जाता है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महानायक थे। उनका जीवन सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था, और वे एक साधारण जीवन जीने वाले असाधारण व्यक्ति थे। इस लेख में हम महात्मा गांधी के जीवन के विभिन्न पहलुओं, उनके संघर्षों, और उनकी प्रेरणादायक कहानियों पर ध्यान देंगे, जो आज भी हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
1 महात्मा गांधी का प्रारंभिक जीवन
महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर, गुजरात में हुआ था। उनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। उनके पिता, करमचंद गांधी, पोरबंदर के दीवान थे और माता, पुतलीबाई, एक धार्मिक और सरल महिला थीं।गांधीजी के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी, लेकिन उनका पालन-पोषण किसी शाही ठाट-बाट में नहीं हुआ। , उनकी माँ, पुतलीबाई, एक धार्मिक और परोपकारी महिला थीं, जिन्होंने अपने बच्चों में धर्म, करुणा और सत्य के बीज बोए। पुतलीबाई का जीवन अत्यंत साधारण था। वे ज्यादातर समय उपवास करती थीं और भगवान की भक्ति में लीन रहती थीं। उनके इस आचरण ने युवा मोहनदास पर गहरी छाप छोड़ी।
गांधीजी की माँ का प्रभाव कहना गलत नहीं होगा कि अगर महात्मा गांधी के व्यक्तित्व की नींव में किसी का सबसे अधिक योगदान था, तो वह उनकी माँ पुतलीबाई थीं। वह एक ऐसी महिला थीं जिनकी दृढ़ता, निष्ठा और धार्मिकता ने मोहनदास को भीतर से गढ़ा। माँ की ममता और त्याग की कहानियाँ उनके बचपन का अभिन्न हिस्सा थीं। पुतलीबाई अक्सर कठिन उपवास करती थीं और अपने बच्चों को भी सिखाती थीं कि आत्मसंयम और सादगी जीवन के असली आभूषण हैं। जब भी वे उपवास करतीं, मोहनदास उनके पास बैठे रहते, माँ को देख कर उनके मन में यह बात गहराई से बैठ गई कि संयम और त्याग से ही जीवन की सच्ची दिशा मिलती है।
डरपोक बच्चा लेकिन सच्चा
बचपन में मोहनदास बहुत ही साधारण और कभी-कभी डरपोक स्वभाव के थे। उन्हें अंधेरे से डर लगता था, और वे झूठ बोलने से बहुत घबराते थे। लेकिन एक घटना ने उनके जीवन का रुख बदल दिया। एक बार उन्होंने चोरी की, और यह अपराध उन्हें भीतर से तोड़ने लगा। अपराधबोध से भरकर उन्होंने अपनी माँ को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की और माफी माँगी। उनकी माँ ने बिना कोई सजा दिए उन्हें माफ कर दिया, और यह अहसास मोहनदास के दिल में हमेशा के लिए बैठ गया – सत्य ही सर्वोच्च है।
कच्ची उम्र में शादी और भीतर का द्वंद्व
महात्मा गांधी का बचपन अन्य बच्चों की तरह ही खुशियों और उलझनों से भरा था, लेकिन उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब उनकी शादी 13 साल की उम्र में कस्तूरबा से हो गई। इतनी कम उम्र में विवाह बंधन में बंधना उनके लिए मानसिक और भावनात्मक रूप से चुनौतीपूर्ण था। उस समय वे अपने भावों को सही तरह से व्यक्त भी नहीं कर पाते थे। विवाह के बाद, उन्होंने अपने जीवन में एक अजीब से खालीपन को महसूस किया, जिसे वे समझ नहीं पा रहे थे। वे कस्तूरबा से बेहद प्यार करते थे, लेकिन इस बंधन ने उन्हें आत्मसंघर्ष की राह पर ला दिया। वे अक्सर अपने अधिकारों को लेकर कठोर हो जाते, लेकिन समय के साथ उन्होंने समझा कि प्रेम और साझेदारी का असली मतलब क्या होता है।
सच और झूठ के बीच की लड़ाई
महात्मा गांधी के प्रारंभिक जीवन में एक और महत्वपूर्ण घटना थी जिसने उनके भीतर सच्चाई और ईमानदारी के प्रति गहरा विश्वास पैदा किया। बचपन में, उनके दोस्त उन्हें गलत रास्ते पर ले जाने की कोशिश करते थे। एक बार एक दोस्त ने उन्हें मांसाहार करने के लिए उकसाया, यह कहकर कि इससे वे अंग्रेजों की तरह मजबूत बन सकते हैं। गांधीजी ने कुछ समय के लिए इस बात को माना, लेकिन जल्द ही यह समझ में आ गया कि यह उनके सिद्धांतों के खिलाफ है। इस घटना ने उन्हें सिखाया कि समाज के दबाव में आकर अपने मूल्यों से समझौता नहीं करना चाहिए।
बचपन के संस्कारों ने किया भविष्य निर्माण
गांधीजी का बचपन जितना साधारण था, उतना ही अद्भुत भी था। पोरबंदर की गलियों में खेलते हुए, वे कभी नहीं सोच सकते थे कि एक दिन वे पूरे विश्व के लिए प्रेरणा बनेंगे। लेकिन उनके बचपन के संस्कारों ने उनके भविष्य को आकार दिया। उनके भीतर सत्य, अहिंसा और सादगी के जो बीज बचपन में बोए गए थे, उन्होंने ही उन्हें “महात्मा” बनाया।
जब हम महात्मा गांधी के प्रारंभिक जीवन को देखते हैं, तो हमें यह समझ में आता है कि उनके जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना ने उन्हें भविष्य के महानायक के रूप में तैयार किया। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि चाहे हालात कैसे भी हों, यदि हमारे भीतर सत्य और धैर्य की शक्ति हो, तो हम किसी भी मुश्किल का सामना कर सकते हैं।
शिक्षा और विदेश यात्रा
महात्मा गांधी का जीवन एक ऐसी प्रेरणादायक यात्रा है, जिसमें हर कदम पर उनके भीतर के संघर्ष, आत्मनिरीक्षण और दृढ़ संकल्प की गाथा है। उनकी शिक्षा और विदेश यात्रा ने उनके जीवन में गहरे बदलाव लाए, जिन्होंने उन्हें एक साधारण व्यक्ति से महात्मा बनने की ओर अग्रसर किया।
शिक्षा का आरंभ: छोटे शहर से बड़े सपनों तक
मोहनदास करमचंद गांधी का शिक्षा का सफर बेहद सामान्य था। राजकोट के अल्फ्रेड हाई स्कूल से उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। एक साधारण विद्यार्थी, जो न तो बेहद होशियार था और न ही खास तौर पर किसी में अव्वल, गांधीजी का स्कूली जीवन चुनौतियों से भरा रहा। बचपन में वे बेहद शर्मीले और संकोची स्वभाव के थे। क्लास में चुपचाप बैठने वाले गांधीजी, कभी-कभी इस बात से परेशान होते थे कि वे अपने शिक्षकों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। उनके भीतर हमेशा यह सवाल उठता कि क्या वे कभी जीवन में कुछ बड़ा कर पाएंगे?
लेकिन उनके पिता करमचंद गांधी और विशेष रूप से उनकी माता पुतलीबाई ने हमेशा उन्हें प्रोत्साहित किया। उनकी माँ का विश्वास था कि शिक्षा सिर्फ पुस्तकों तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह जीवन के हर पहलू में है – सच बोलने में, दूसरों की मदद करने में, और अपने कर्तव्यों को निभाने में। इसी ने मोहनदास के भीतर एक गहरी इच्छा जगाई, कि वह न केवल अपने परिवार का नाम रोशन करें, बल्कि अपने जीवन को कुछ ऐसा बनाएँ जो दूसरों के लिए मिसाल हो।
इंग्लैंड जाने का फैसला: परिवार और समाज का विरोध
गांधीजी के जीवन का सबसे बड़ा मोड़ तब आया जब उन्होंने कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जाने का निर्णय लिया। यह एक ऐसा फैसला था जिसने न केवल उनके जीवन को, बल्कि भारतीय समाज को भी हिला कर रख दिया। उस समय के सामाजिक मानदंडों के अनुसार, विदेश यात्रा को अच्छा नहीं माना जाता था। गांधी परिवार में भी इस पर कई तरह की आपत्तियाँ उठीं। लेकिन उनके बड़े भाई लक्ष्मीदास ने उनका समर्थन किया, यह कहते हुए कि मोहनदास का भविष्य उज्ज्वल होगा और वे अपने देश के लिए कुछ महान करेंगे।
उनकी माँ पुतलीबाई के लिए यह निर्णय बेहद कठिन था। एक ओर जहाँ समाज का दबाव था, वहीं दूसरी ओर अपने बेटे के भविष्य की चिंता। लेकिन उन्होंने मोहनदास से एक वचन लिया – वह इंग्लैंड में रहकर न तो मांस खाएंगे, न शराब पीएंगे और न ही किसी अनैतिक कार्य में लिप्त होंगे। गांधीजी ने यह वचन दिल से स्वीकारा और उनकी माँ की आँखों में भरोसे की चमक ने उन्हें और भी मजबूत बना दिया।
इंग्लैंड की यात्रा: नए अनुभवों से जीवन का रूपांतरण
1888 में, महात्मा गांधी इंग्लैंड की ओर रवाना हुए। एक युवा लड़का जो कभी अपने छोटे शहर से बाहर नहीं निकला था, अब एक ऐसे देश जा रहा था जो उसकी कल्पनाओं से कहीं बड़ा और जटिल था। इंग्लैंड पहुँचने पर, उनके सामने कई चुनौतियाँ खड़ी थीं। वहाँ की संस्कृति, रहन-सहन और खानपान ने उन्हें चौंका दिया। शुरुआत में, उन्हें खुद को वहाँ के माहौल में ढालने में काफी दिक्कतें हुईं।
गांधीजी ने इंग्लैंड में अपने समय का उपयोग सिर्फ कानून की पढ़ाई के लिए नहीं किया, बल्कि वहाँ की संस्कृति और विचारधाराओं को भी करीब से देखा। उन्होंने देखा कि कैसे पश्चिमी दुनिया अपनी आधुनिकता और विकास पर गर्व करती है, लेकिन उसी समय उन्होंने अपने भारतीय मूल्यों को छोड़ने से इनकार किया। इंग्लैंड में रहते हुए भी, गांधीजी ने सादगी और संयम को अपनाया। वे खुद के लिए खाना बनाते थे, अपना खर्चा कम रखते थे, और अपने वचन के अनुसार शाकाहारी जीवन जीते रहे।
लंदन में शिक्षा: आत्मनिरीक्षण और संघर्ष का समय
लंदन में पढ़ाई के दौरान, गांधीजी ने कानून की शिक्षा ली, लेकिन उनके जीवन का असली पाठ सिर्फ किताबों से नहीं, बल्कि जीवन के अनुभवों से आया। वहाँ उन्होंने आत्मनिरीक्षण का एक लंबा समय बिताया। इंग्लैंड की तेज-तर्रार और भव्य जीवनशैली ने उनके भीतर एक गहरी सोच पैदा की – क्या यही जीवन का अंतिम उद्देश्य है? क्या भौतिक संपन्नता ही असली खुशी है?
इस दौरान उन्होंने कुछ महान विचारकों और धर्मग्रंथों को पढ़ना शुरू किया। भगवद गीता और बाइबल जैसी धार्मिक पुस्तकों ने उनके विचारों को आकार दिया। इन ग्रंथों ने उन्हें सिखाया कि असली शक्ति न तो भौतिक संपत्ति में है और न ही बाहरी सफलता में, बल्कि आत्मनियंत्रण और सत्य की राह पर चलने में है। इस विचारधारा ने गांधीजी को भीतर से गढ़ा और यही विचार उनके आगे के जीवन का आधार बना।
वकालत का संघर्ष और जीवन का नया अध्याय
लंदन से वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद, 1891 में महात्मा गांधी भारत लौटे। लेकिन यहाँ की ज़मीन पर उतरते ही, उनके सामने एक और चुनौती थी – उनकी वकालत की शुरुआत किसी सुनहरे सपने की तरह नहीं हुई। उन्हें अपने पहले मुकदमे में इतनी घबराहट हुई कि वे कोर्ट में खड़े होकर बोल भी नहीं पाए। यह वह क्षण था जिसने उन्हें अंदर से तोड़ दिया।
एक तरफ उनके पास पश्चिमी शिक्षा थी, लेकिन दूसरी तरफ भारतीय समाज की सच्चाई और अपनी ही कमजोरियों ने उन्हें उलझा दिया था। वे असमंजस में थे कि क्या वकालत ही उनका असली रास्ता है? इस संघर्ष ने उनके मन में एक सवाल खड़ा कर दिया – क्या वे जीवन में सही दिशा में हैं?
लेकिन इस असफलता ने गांधीजी को निराश नहीं किया। वे खुद से जूझते रहे और अपनी कमजोरियों को पहचानने लगे। यही आत्मनिरीक्षण का दौर था जिसने उनके भीतर एक नए संकल्प को जन्म दिया। वे समझ गए कि जीवन में असली जीत बाहरी मुकदमे जीतने में नहीं, बल्कि आत्मबल को मजबूत करने में है।
दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष
महात्मा गांधी का दक्षिण अफ्रीका का संघर्ष उनकी जीवन यात्रा का वह महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसने न केवल उनके जीवन को बदला, बल्कि उन्हें “महात्मा” बनने की ओर अग्रसर किया। यह संघर्ष सिर्फ बाहरी अत्याचारों से नहीं था, बल्कि उनके भीतर का आत्म-संघर्ष भी था। उनके जीवन की यह कहानी हमें सिखाती है कि कैसे एक व्यक्ति अपने मूल्यों और सिद्धांतों के साथ खड़ा रहकर दुनिया को बदल सकता है।
पहली बार नस्लीय भेदभाव का सामना: एक सामान्य यात्रा का असामान्य मोड़
महात्मा गांधी 1893 में एक मुकदमे के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका गए थे। वे एक युवा भारतीय वकील के रूप में वहाँ पहुँचे थे, लेकिन जल्द ही उन्हें एक ऐसा अनुभव हुआ जिसने उनके जीवन की दिशा बदल दी। यह घटना पिटर्मारिट्जबर्ग स्टेशन पर हुई, जब वे प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सफर कर रहे थे। गांधीजी के पास वैध टिकट होने के बावजूद, उन्हें केवल उनकी त्वचा के रंग के कारण ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया।
इस घटना ने उनके भीतर गहरे जख्म छोड़े। ठंडी रात में स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर बैठे हुए, उनके मन में सवालों का बवंडर चल रहा था: “क्या यह न्याय है? क्या किसी इंसान के साथ इस तरह का व्यवहार केवल उसकी त्वचा के रंग के कारण होना चाहिए?” उस रात गांधीजी ने ठान लिया कि वे इस अन्याय के खिलाफ लड़ेंगे, लेकिन हथियारों से नहीं, बल्कि सत्य और अहिंसा के बल पर।
नस्लीय अन्याय और भीतर की लड़ाई
दक्षिण अफ्रीका में नस्लीय भेदभाव सिर्फ एक घटना नहीं थी, यह वहाँ की व्यवस्था का हिस्सा था। भारतीयों और अन्य गैर-श्वेत लोगों के साथ वहाँ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। गांधीजी ने देखा कि कैसे भारतीयों को छोटी-छोटी बातों के लिए भी दंडित किया जाता था – चाहे वह ट्रेन में सफर करना हो, या फुटपाथ पर चलना। यह सब देखकर गांधीजी के दिल में एक ज्वाला जल उठी, लेकिन यह ज्वाला क्रोध या हिंसा की नहीं थी, बल्कि अहिंसा और सत्य के लिए संघर्ष की थी।
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने देखा कि वहाँ के भारतीय समुदाय को अपनी ही जमीन पर दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता था। भारतीयों को अपनी पहचान साबित करने के लिए हर जगह पास ले जाना पड़ता था, और यदि वे इसे भूल जाते थे तो उन्हें अपमानित किया जाता था, गिरफ्तार किया जाता था। इस तरह के अत्याचारों ने गांधीजी को भीतर से झकझोर दिया। वे सोचने लगे कि जब तक लोग चुप रहेंगे, यह अन्याय चलता रहेगा।
सत्याग्रह का जन्म: एक नई लड़ाई की शुरुआत
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी का सबसे बड़ा योगदान सत्याग्रह का सिद्धांत था, जिसका अर्थ है सत्य के लिए अडिग रहना। उन्होंने महसूस किया कि अन्याय और अत्याचार का सामना करने का सबसे मजबूत तरीका हिंसा नहीं, बल्कि अहिंसा है। सत्याग्रह का मतलब था कि बिना हिंसा के, सच्चाई के मार्ग पर चलते हुए अत्याचार का विरोध किया जाए। यह एक ऐसा सिद्धांत था, जिसे पहले कभी इस तरह से न तो समझा गया था और न ही अपनाया गया था।
गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका के भारतीय समुदाय को संगठित किया और उन्हें यह सिखाया कि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाएँ, लेकिन किसी भी स्थिति में हिंसा का सहारा न लें। उन्होंने लोगों को समझाया कि यदि वे सच्चाई और अहिंसा के मार्ग पर अडिग रहेंगे, तो अंततः अन्याय हार जाएगा।
पहला बड़ा आंदोलन: 1906 का सत्याग्रह
1906 में, दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने एशियाई लोगों के लिए एक नया कानून पास किया, जिसे ‘ब्लैक एक्ट’ के नाम से जाना जाता था। इस कानून के तहत सभी भारतीयों को अपनी उंगलियों के निशान देने पड़ते थे और उनके लिए एक विशेष पहचान पत्र रखना अनिवार्य था। यह कानून पूरी तरह से अपमानजनक था और इसका मकसद भारतीयों को सामाजिक रूप से और नीचा दिखाना था।
गांधीजी ने इस अन्याय के खिलाफ सत्याग्रह की शुरुआत की। उन्होंने भारतीय समुदाय से अपील की कि वे इस कानून का पालन न करें और किसी भी कीमत पर अपनी गरिमा को बनाए रखें। हजारों भारतीयों ने गांधीजी के नेतृत्व में इस आंदोलन में हिस्सा लिया और अपना विरोध जताया।
लेकिन यह विरोध आसान नहीं था। सत्याग्रहियों को गिरफ्तार किया गया, उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया, और उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं। गांधीजी स्वयं भी कई बार जेल गए, लेकिन उन्होंने कभी भी हिंसा का सहारा नहीं लिया। उनका विश्वास था कि सत्य और अहिंसा ही अन्याय के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार है।
शारीरिक यातना और मानसिक शक्ति
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने केवल बाहरी संघर्षों का सामना नहीं किया, बल्कि भीतर की लड़ाई भी लड़ी। उन्हें जेल में कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, उन्हें भूखा रखा गया, और कई बार उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया। लेकिन इन सभी यातनाओं ने उनके भीतर की शक्ति को और मजबूत किया। उन्होंने हर बार अपने अनुयायियों को यह संदेश दिया कि वे किसी भी परिस्थिति में हिंसा का सहारा न लें।
एक बार गांधीजी को जेल में गंभीर रूप से बीमार कर दिया गया था, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनके पास एक अदम्य इच्छाशक्ति थी, जो उन्हें हर मुश्किल में मजबूत बनाती थी। उनके अनुयायी भी उनके इस दृढ़ निश्चय को देखकर प्रेरित होते थे।
संपूर्ण जीत: संघर्ष की अंतिम परिणति
गांधीजी के अहिंसक संघर्ष ने आखिरकार 1914 में अपना परिणाम दिखाया। दक्षिण अफ्रीका की सरकार को भारतीयों के साथ होने वाले अन्याय को समाप्त करना पड़ा। ‘ब्लैक एक्ट’ को वापस ले लिया गया, और भारतीयों को वह सम्मान दिया गया जिसके वे हकदार थे। यह एक ऐसी जीत थी, जो सिर्फ बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक रूप से भी गांधीजी के लिए महत्वपूर्ण थी। यह सत्य और अहिंसा की जीत थी, और इसने गांधीजी को एक नई पहचान दी – एक अहिंसावादी योद्धा की पहचान।
भारत वापसी और स्वतंत्रता संग्राम
महात्मा गांधी की दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी एक ऐसा क्षण था जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को नया मोड़ दिया। वे न सिर्फ एक सफल वकील बनकर लौटे थे, बल्कि एक अद्वितीय विचारधारा के वाहक भी थे। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्ष ने उन्हें सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों का गहरा अनुभव कराया था, और अब वे अपने इसी अनुभव को अपने देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित करने को तैयार थे।
भारत में गांधीजी की वापसी: उम्मीद और विश्वास का नया सूरज
1915 में, महात्मा गांधी भारत लौटे। उनके कदम इस भूमि पर पड़े, तो भारत का सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य निराशा और असमानता से भरा हुआ था। ब्रिटिश शासन का अत्याचार अपनी चरम सीमा पर था। लाखों लोग गरीबी और शोषण का शिकार थे, और स्वतंत्रता का सपना दूर की कौड़ी जैसा लग रहा था। ऐसे में गांधीजी का आगमन भारतवासियों के लिए एक नई उम्मीद की किरण लेकर आया।
दक्षिण अफ्रीका के संघर्षों ने गांधीजी को न केवल एक नेता, बल्कि एक मार्गदर्शक बना दिया था। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता भी थी। उनका मानना था कि भारत की स्वतंत्रता सिर्फ अंग्रेजों से मुक्ति नहीं, बल्कि एक आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और समानता पर आधारित समाज का निर्माण है।
गांधीजी का भारत भ्रमण: जमीनी हकीकत से साक्षात्कार
भारत लौटने के बाद, गांधीजी ने तुरंत किसी बड़े आंदोलन की शुरुआत नहीं की। इसके बजाय, उन्होंने पहले अपने देश की जनता को और उनकी समस्याओं को गहराई से समझने का निर्णय लिया। वे कई वर्षों तक देश के गाँव-गाँव, शहर-शहर घूमे। उन्होंने किसानों, मजदूरों, व्यापारियों, छात्रों और महिलाओं से मुलाकात की। वे इस विशाल देश की आत्मा को समझना चाहते थे।
गाँवों में फैली गरीबी, शोषण और अंग्रेजी हुकूमत की नीतियों से जनता के दुःख ने गांधीजी को भीतर तक झकझोर दिया। उनके दिल में यह पक्का विश्वास जाग गया कि इस अन्याय का अंत सिर्फ और सिर्फ सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही हो सकता है। इस सफर ने उन्हें भारतीय जनमानस के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ दिया, और उन्हें यह विश्वास दिलाया कि भारत की असली ताकत इसके गाँवों और आम जनता में निहित है।
चंपारण सत्याग्रह: स्वतंत्रता संग्राम का पहला अध्याय
गांधीजी का पहला बड़ा आंदोलन बिहार के चंपारण में हुआ। चंपारण के किसानों को ब्रिटिश सरकार द्वारा जबरन नील की खेती करने पर मजबूर किया जा रहा था। उनके पास न तो पर्याप्त भोजन था और न ही कोई अधिकार। वहाँ के किसान गांधीजी के पास अपनी समस्याएँ लेकर आए। गांधीजी ने उनकी पीड़ा को महसूस किया और बिना किसी हिचकिचाहट के उनके समर्थन में खड़े हो गए।
गांधीजी ने चंपारण में किसानों के अधिकारों की लड़ाई को सत्याग्रह के रूप में शुरू किया। उन्होंने स्थानीय किसानों को अहिंसा के माध्यम से अपनी आवाज उठाने का साहस दिया। यह आंदोलन गांधीजी की पहली बड़ी सफलता थी, क्योंकि ब्रिटिश सरकार को किसानों के हितों के आगे झुकना पड़ा। यह सत्याग्रह भारत में गांधीजी के नेतृत्व में एक नए युग की शुरुआत थी, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी।
असहयोग आंदोलन: ब्रिटिश शासन के खिलाफ पहला बड़ा विरोध
गांधीजी के नेतृत्व में 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन का उद्देश्य ब्रिटिश शासन से असहयोग करना था। गांधीजी ने लोगों से अपील की कि वे ब्रिटिश स्कूलों, अदालतों और सरकारी नौकरियों से त्यागपत्र दें। उन्होंने सभी से ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार करने और खादी के वस्त्र अपनाने का आग्रह किया। उनका कहना था, “स्वराज्य सिर्फ शासन में नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता में है।”
असहयोग आंदोलन ने भारतीय समाज के हर तबके को एकजुट किया। किसान, मजदूर, व्यापारी, छात्र और महिलाएँ – सभी ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। ब्रिटिश सामानों की होली जलाई गई, सरकारी संस्थानों का बहिष्कार किया गया, और खादी का इस्तेमाल बढ़ाया गया। यह वह समय था जब गांधीजी ने पूरे देश को यह महसूस कराया कि यदि हम एकजुट हो जाएं, तो ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी जा सकती है।
दांडी मार्च: नमक पर ब्रिटिश राज का प्रतिकार
1930 का दांडी मार्च गांधीजी के नेतृत्व में अहिंसात्मक प्रतिरोध का एक और उदाहरण था। ब्रिटिश सरकार ने नमक पर भारी कर लगाया था, जो गरीब भारतीयों के लिए एक अनिवार्य वस्तु थी। गांधीजी ने इसका विरोध करने का निश्चय किया और 12 मार्च 1930 को अपने अनुयायियों के साथ साबरमती आश्रम से 240 मील की यात्रा शुरू की। यह यात्रा ‘नमक सत्याग्रह’ के नाम से जानी गई।
गांधीजी और उनके अनुयायियों ने इस यात्रा के दौरान समुद्र के किनारे पहुँचकर अपने हाथों से नमक बनाया, जो कि ब्रिटिश कानून का उल्लंघन था। यह मार्च ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक प्रतीकात्मक विरोध था, जिसने पूरे विश्व का ध्यान खींचा। लाखों भारतीयों ने इस आंदोलन का समर्थन किया, और यह आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ।
भारत छोड़ो आंदोलन: अंतिम संघर्ष की पुकार
1942 में गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का नेतृत्व किया। यह आंदोलन गांधीजी के नेतृत्व में स्वतंत्रता की अंतिम लड़ाई थी। उन्होंने पूरे देश से ब्रिटिश शासन को तत्काल समाप्त करने की मांग की और कहा, “अंग्रेजों, भारत छोड़ो।” इस आंदोलन ने पूरे भारत को जगा दिया। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हुए, और लाखों लोगों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की।
इस आंदोलन के दौरान गांधीजी और उनके कई सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन उनकी गिरफ्तारी ने आंदोलन को और भी अधिक तीव्र बना दिया। पूरे देश में गांधीजी का नारा “करो या मरो” गूंजने लगा। यह वह क्षण था जब भारत की जनता ने यह ठान लिया था कि अब या तो उन्हें स्वतंत्रता मिलेगी, या वे इसके लिए अपने प्राण त्याग देंगे।
गांधीजी का जीवन दर्शन
महात्मा गांधी का जीवन दर्शन केवल उनके कार्यों या संघर्षों से नहीं, बल्कि उनकी सोच, उनके सिद्धांतों और उन आदर्शों से निर्मित था, जिन पर वे अडिग रहे। गांधीजी का जीवन दर्शन उस गहरे आत्मनिरीक्षण से उपजा था, जिसे उन्होंने जीवन के हर पहलू में अपनाया। यह केवल एक राजनीतिक विचारधारा नहीं थी, बल्कि एक ऐसी जीवनशैली थी जो सत्य, अहिंसा, सादगी और आत्मनिर्भरता के मूल्यों पर आधारित थी। यह दर्शन न केवल उनके जीवन को, बल्कि लाखों लोगों के जीवन को प्रेरित करता रहा है और आज भी एक महान प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।
सत्य का अदम्य विश्वास: “सत्य ही ईश्वर है”
गांधीजी के जीवन दर्शन की नींव सत्य पर टिकी थी। उनका मानना था कि सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है। उनके लिए सत्य केवल एक आदर्श नहीं था, बल्कि जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य था। उनका प्रसिद्ध कथन, “सत्य ही ईश्वर है” इस बात को दर्शाता है कि उनके लिए सत्य केवल नैतिकता या धर्म का प्रश्न नहीं, बल्कि जीवन की संपूर्णता का आधार था।
गांधीजी का मानना था कि सत्य के बिना जीवन अधूरा है। वे कहते थे कि सत्य को पाने का सबसे अच्छा तरीका है कि हम अपने भीतर ईमानदारी से झाँकें और खुद से पूछें कि हम किस हद तक सच बोलने और सत्य का पालन करने में सक्षम हैं। उनके जीवन का हर पहलू इसी सत्य की खोज में था – चाहे वह व्यक्तिगत हो, सामाजिक हो, या राजनीतिक।
अहिंसा: सबसे बड़ा हथियार
गांधीजी के जीवन दर्शन का दूसरा महत्वपूर्ण स्तंभ था अहिंसा। उनके लिए अहिंसा सिर्फ हिंसा से परहेज नहीं थी, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक सिद्धांत था। वे मानते थे कि अहिंसा सबसे बड़ी शक्ति है जो किसी भी अन्याय या अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए पर्याप्त है।
गांधीजी का अहिंसा का दृष्टिकोण केवल बाहरी हिंसा के खिलाफ नहीं था, बल्कि यह भीतर की हिंसा, क्रोध, द्वेष, और नफरत के खिलाफ भी था। वे मानते थे कि यदि हम अपनी आत्मा के भीतर शांति और करुणा को स्थान देंगे, तो हम किसी भी बाहरी हिंसा या अन्याय का सामना अहिंसा के बल पर कर सकते हैं।
सत्याग्रह: आत्मा की शक्ति का प्रतिरोध
गांधीजी का सत्याग्रह का सिद्धांत उनके जीवन दर्शन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। सत्याग्रह का अर्थ है “सत्य के प्रति अडिग रहना”। यह एक ऐसा आंदोलन था जिसे उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में शुरू किया और बाद में भारत में स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा हथियार बना।
गांधीजी का मानना था कि अन्याय और अत्याचार का सामना केवल हिंसा से नहीं किया जा सकता, बल्कि इसका प्रतिरोध आत्मा की शक्ति से किया जाना चाहिए। सत्याग्रह केवल विरोध नहीं, बल्कि आत्मबलिदान और धैर्य का प्रतीक था। उनके लिए यह आत्मा की शक्ति का एक ऐसा रूप था, जो किसी भी सत्ता या ताकत से अधिक मजबूत है।
सादगी और आत्मनिर्भरता: जीवन का सच्चा सौंदर्य
गांधीजी का जीवन दर्शन सादगी में बसा हुआ था। उनके लिए सादगी कोई मजबूरी नहीं, बल्कि जीवन का सौंदर्य था। वे मानते थे कि जितना हम अपने जीवन को सरल बनाएंगे, उतना ही हम अपने भीतर की शांति और संतोष को पा सकेंगे। उनका पहनावा, उनका भोजन, उनका जीवन – सब कुछ सादगी का प्रतीक था।
गांधीजी का जीवन दर्शन आत्मनिर्भरता पर भी आधारित था। उनके अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करनी चाहिए। यही कारण था कि उन्होंने खादी और चरखे का समर्थन किया। उनके लिए यह सिर्फ आर्थिक स्वतंत्रता का प्रतीक नहीं था, बल्कि आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान का प्रतीक था। उनका कहना था, “अगर हम खुद को संभाल नहीं सकते, तो हम स्वतंत्रता का सपना भी कैसे देख सकते हैं?”
धर्म और आध्यात्मिकता: हर धर्म का सम्मान
गांधीजी के जीवन में धर्म और आध्यात्मिकता की गहरी भूमिका थी, लेकिन उनका धर्म किसी एक विशेष परंपरा या संप्रदाय तक सीमित नहीं था। वे मानते थे कि सभी धर्म एक ही सत्य की ओर इशारा करते हैं। उनके लिए हर धर्म का उद्देश्य मानवता की सेवा करना और अहिंसा के मार्ग पर चलना था।
उन्होंने भगवद गीता, बाइबल और कुरान का अध्ययन किया और सभी धर्मों से समानता, करुणा और सहिष्णुता के सिद्धांतों को अपनाया। उनके अनुसार, “धर्म केवल पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन की हर क्रिया में परिलक्षित होना चाहिए।”
आत्म-नियंत्रण और ब्रह्मचर्य: जीवन की शुद्धता
गांधीजी के जीवन दर्शन में आत्म-नियंत्रण और ब्रह्मचर्य का विशेष स्थान था। उनके अनुसार, जीवन में सफल होने के लिए मन और शरीर पर नियंत्रण होना आवश्यक है। वे कहते थे कि यदि हम अपनी इच्छाओं और वासनाओं को नियंत्रित कर लें, तो हम अपने जीवन में शुद्धता और शांति को पा सकते हैं।
उनका ब्रह्मचर्य का पालन केवल एक नैतिक अनुशासन नहीं था, बल्कि यह उनके जीवन की शुद्धता का प्रतीक था। वे मानते थे कि शारीरिक और मानसिक शुद्धता से ही हम अपने जीवन के उच्चतम लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं।
पर्यावरण और मानवता के प्रति दायित्व
गांधीजी का जीवन दर्शन केवल मानवता तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने पर्यावरण और प्रकृति के प्रति भी गहरी संवेदनशीलता दिखाई। उनका मानना था कि मनुष्य और प्रकृति के बीच का संतुलन बहुत महत्वपूर्ण है। वे कहते थे, “पृथ्वी के पास हर किसी की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त है, लेकिन लालच पूरा करने के लिए नहीं।” उनके इस कथन में मानवता के लिए एक गहरी चेतावनी थी कि यदि हम अपने लालच और अति उपभोग की आदतों पर नियंत्रण नहीं रखेंगे, तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाएगा और इसका खामियाजा हमें ही भुगतना पड़ेगा।
हिंदू-मुस्लिम एकता और साम्प्रदायिक सौहार्द
महात्मा गांधी का जीवन साम्प्रदायिक सद्भाव का जीता-जागता उदाहरण था। वे हिंदू-मुस्लिम एकता के सबसे बड़े समर्थक थे और हमेशा यह कहते थे कि “जब तक भारत के हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं आएंगे, तब तक हम स्वतंत्रता का सपना नहीं देख सकते।”
गांधीजी ने अपनी पूरी जिंदगी साम्प्रदायिक एकता के लिए संघर्ष किया। उनके लिए हर धर्म समान था, और उन्होंने कभी भी धर्म के आधार पर किसी को विभाजित नहीं किया। भारत के विभाजन के समय हुए दंगों ने उनके दिल को तोड़ दिया था, लेकिन उन्होंने आखिरी सांस तक इस विभाजन को रोकने की कोशिश की।
शांति और प्रेम: जीवन का अंतिम उद्देश्य
गांधीजी के जीवन दर्शन में शांति और प्रेम का विशेष स्थान था। उनका मानना था कि जीवन का अंतिम उद्देश्य शांति और प्रेम में निहित है। उन्होंने कहा, “आप प्रेम के माध्यम से दुनिया को हिला सकते हैं।” उनके लिए प्रेम और करुणा मानवता की सबसे बड़ी ताकत थी।
उनका विश्वास था कि दुनिया की सभी समस्याओं का समाधान प्रेम और शांति से ही किया जा सकता है। चाहे वह व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, उन्होंने हर स्तर पर प्रेम और शांति का संदेश दिया।
महात्मा गांधी की मृत्यु
महात्मा गांधी की मृत्यु केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं थी, बल्कि यह एक ऐसा पल था जिसने न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व को गहरा झटका दिया। बापू, जो अहिंसा और सत्य के मार्ग पर चलकर भारत को स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके थे, उनकी हत्या ने पूरे देश की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। यह घटना भावनात्मक रूप से हर भारतीय के दिल में एक ऐसा शून्य छोड़ गई, जिसे आज भी भरा नहीं जा सका है।
मृत्यु से पहले का समय: अशांत भारत
1947 में भारत को आजादी मिली, लेकिन यह स्वतंत्रता खुशियों के साथ नहीं आई। भारत का विभाजन, जिसने लाखों लोगों की जिंदगी को तबाह कर दिया था, गांधीजी के दिल पर गहरा आघात था। बापू ने अपनी पूरी जिंदगी हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए समर्पित कर दी थी, लेकिन विभाजन के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों और हिंसा ने उनके विश्वासों को हिला कर रख दिया। उन्होंने यह कभी नहीं चाहा था कि स्वतंत्रता इतनी कीमत चुकाने के बाद मिले।
गांधीजी ने विभाजन के दौरान और बाद में हो रही हिंसा को रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया। वे बंगाल और दिल्ली के दंगों को शांत करने के लिए कई बार उपवास पर बैठे, ताकि लोग अपनी नफरत और हिंसा छोड़कर शांति और भाईचारे की ओर लौट सकें। उनके मन में एक ही बात थी – “हम चाहे किसी भी धर्म के हों, लेकिन सबसे पहले हम इंसान हैं।”
आखिरी दिन: बापू की अंतिम प्रार्थना सभा
30 जनवरी 1948 का दिन महात्मा गांधी के जीवन का आखिरी दिन साबित हुआ। दिल्ली के बिड़ला हाउस में, जहाँ वे रह रहे थे, शाम के समय उनकी रोज़ की तरह प्रार्थना सभा होने वाली थी। प्रार्थना सभा उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी, जहाँ वे शांति और एकता के संदेश को फैलाने के लिए लोगों से मिलते थे।
उस शाम भी, वे अपने अनुयायियों के साथ प्रार्थना सभा के लिए जा रहे थे। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह सादगी और शांति की झलक थी। जैसे ही वे प्रार्थना स्थल की ओर बढ़े, उनकी आँखों में करुणा और प्रेम का भाव था – मानो वे अब भी इस बँटते हुए देश को समर्पण और प्रेम से एक करने का सपना देख रहे थे।
नाथूराम गोडसे का कृत्य: प्रेम और अहिंसा का अंत?
लेकिन इस शांतिपूर्ण शाम ने अचानक एक भयानक मोड़ ले लिया। नाथूराम गोडसे, जो गांधीजी की विचारधारा और उनके हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों से असहमत था, प्रार्थना सभा में मौजूद था। जैसे ही गांधीजी ने अपने अनुयायियों के बीच कदम रखा, गोडसे ने उनके करीब आकर तीन गोलियाँ दाग दीं।
गांधीजी के मुँह से अंतिम शब्द निकले – “हे राम“। यह उनका गहन विश्वास था कि सत्य और ईश्वर सदा उनके साथ हैं। उनकी मृत्यु के साथ ही, पूरा भारत शोक में डूब गया। लोगों को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिसने अपनी पूरी जिंदगी अहिंसा और प्रेम के लिए समर्पित कर दी, वह इस तरह की हिंसा का शिकार हो सकता है।
देश का शोक: बापू चले गए, लेकिन उनकी आत्मा अमर है
महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद पूरा देश जैसे स्तब्ध हो गया। चारों ओर एक गहरी उदासी छा गई। हर किसी की आँखों में आँसू थे और दिल में एक सवाल – “अब क्या होगा? हमारा बापू हमें छोड़कर चला गया, अब हमें कौन राह दिखाएगा?”
देशभर में शोक सभाएँ आयोजित की गईं। लोग सड़कों पर निकलकर रो रहे थे, कुछ लोग उनके जाने पर क्रोधित थे, जबकि कुछ यह समझ नहीं पा रहे थे कि जो व्यक्ति हमेशा सभी के दिलों में जीवित रहा, वह अब शारीरिक रूप से कैसे नहीं रहा।
गांधीजी का अंतिम संस्कार: जनसैलाब का उमड़ा प्यार
31 जनवरी 1948 को गांधीजी का अंतिम संस्कार यमुना नदी के किनारे राज घाट पर हुआ। इस अवसर पर लाखों लोग उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए एकत्रित हुए। पूरा भारत शोक में डूबा हुआ था, लेकिन उनके प्रति सम्मान और प्यार ने इस दुख को कुछ हद तक संभालने का काम किया।
देश के कोने-कोने से लोग दिल्ली पहुँचे। उनके शव यात्रा के दौरान हर तरफ़ फूल बरसाए जा रहे थे। उनकी मृत्यु ने लोगों को यह अहसास दिलाया कि उन्होंने एक सच्चा राष्ट्रपिता खो दिया है, जिसने अपने जीवन की हर सांस इस देश और उसकी जनता के कल्याण के लिए समर्पित कर दी थी।
गांधीजी के विचारों की अमरता: मृत्यु से परे जीवन
गांधीजी की मृत्यु के बाद, यह सवाल बार-बार उठता रहा कि क्या उनकी अहिंसा और सत्य की विचारधारा अब जीवित रह पाएगी? क्या उनकी शिक्षाएँ और उनके सिद्धांत अब भी प्रासंगिक रहेंगे? लेकिन समय ने यह सिद्ध किया कि गांधीजी का जीवन दर्शन कभी नहीं मरेगा।
उनकी मृत्यु ने उनके विचारों को और भी अधिक ताकत दी। आज भी, जब हम अहिंसा की बात करते हैं, सत्य की बात करते हैं, या सामाजिक समानता की दिशा में कोई कदम बढ़ाते हैं, तो गांधीजी की शिक्षाएँ हमारे मन में गूँजती हैं। उनकी मृत्यु ने उनके आदर्शों को मिटाया नहीं, बल्कि उन्हें अमर कर दिया।
निष्कर्ष
महात्मा गांधी का जीवन एक खुली किताब है जो सत्य, अहिंसा, सादगी, और आत्मनिर्भरता के सिद्धांतों से भरा हुआ है। उनका संघर्ष और उनकी शिक्षाएँ आज भी हमें सही दिशा दिखाने के लिए पर्याप्त हैं। गांधीजी ने हमें सिखाया कि सही रास्ता मुश्किल हो सकता है, लेकिन यदि वह सत्य और अहिंसा पर आधारित हो, तो अंततः विजय सत्य की ही होगी।
mahatma gandhi ke anmol vachan
- “खुद वो बदलाव बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं।”
- यह वचन हमें याद दिलाता है कि हम अपने जीवन और समाज में बदलाव की शुरुआत अपने आप से कर सकते हैं। जब हम खुद बदलते हैं, तब हमारी सोच और कर्म से पूरी दुनिया बदल सकती है।
- “जहां प्रेम है, वहां जीवन है।”
- प्रेम से भरी एक छोटी सी क्रिया भी जीवन को नया रूप और दिशा दे सकती है। बिना प्रेम के जीवन अधूरा है, और प्रेम ही वह ताकत है जो हमें संपूर्ण बनाता है।
- “आँख के बदले आँख पूरे विश्व को अंधा बना देगी।”
- इस वचन में अहिंसा का संदेश छिपा है। बदले की भावना कभी भी सच्ची शांति नहीं ला सकती। माफ करने और धैर्य रखने से ही संसार में शांति का वास हो सकता है।
- “कमज़ोर कभी माफ़ी नहीं मांगते। क्षमा करना तो ताकतवरों का गुण है।”
- माफ़ करना साहस का काम है, और यह सिर्फ वो व्यक्ति कर सकता है जो सच में मजबूत हो, दिल से और आत्मा से।
- “प्रकृति हर व्यक्ति की ज़रूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त देती है, लेकिन हर व्यक्ति के लालच को पूरा करने के लिए नहीं।”
- गांधी जी का यह वचन हमें सिखाता है कि संतुलन और संयम जीवन में कितना महत्वपूर्ण है। जब हम अपनी आवश्यकताओं को समझते हैं और लालच से दूर रहते हैं, तब प्रकृति हमें हमेशा पर्याप्त देती है।
- गांधी जी का यह वचन हमें सिखाता है कि संतुलन और संयम जीवन में कितना महत्वपूर्ण है। जब हम अपनी आवश्यकताओं को समझते हैं और लालच से दूर रहते हैं, तब प्रकृति हमें हमेशा पर्याप्त देती है।
महात्मा गाँधी पर प्रश्नावली
1. महात्मा गांधी को ‘महात्मा’ उपाधि किसने दी?
महात्मा गांधी को ‘महात्मा’ उपाधि सबसे पहले रवींद्रनाथ टैगोर ने दी थी।
2. गांधीजी का प्रमुख आंदोलन कौन सा था?
गांधीजी का प्रमुख आंदोलन ‘असहयोग आंदोलन’ और ‘दांडी मार्च’ था।
3. महात्मा गांधी की शिक्षा कहाँ से हुई?
गांधीजी ने अपनी कानून की पढ़ाई इंग्लैंड के लंदन विश्वविद्यालय से की थी।
4. गांधीजी की अहिंसा की परिभाषा क्या थी?
गांधीजी की अहिंसा की परिभाषा थी – किसी भी परिस्थिति में हिंसा न करना और सत्य के मार्ग पर अडिग रहना।
5. महात्मा गांधी की हत्या किसने की थी और क्यों?
महात्मा गांधी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी, जो गांधीजी के विचारों से असहमत था और उसे लगता था कि गांधीजी के प्रयास देश को कमजोर कर रहे थे।